पूर्व प्रधानमंत्री Indira Gandhi ने कैसे किया ‘भारतीय कूटनीति’ को मजबूत?

Bharat Ek Soch 1971 War: क्या आपने कभी सोचा है कि 1971 में दुनिया के मंचों पर भारत कहां खड़ा था… उसे कितनी तवज्जो मिलती थी?

Bharat Ek Soch: देश के एक अरब 40 करोड़ लोग आज विजय दिवस के मौके पर भारतीय फौज के उन शूरवीरों को नमन कर रहे हैं… सैल्यूट कर रहे हैं… जिन्होंने 52 साल पहले अपने खून से एक नए मुल्क को जन्म दिया…पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए …अमेरिका के अहंकार को चूर-चूर कर दिया। जरा सोचिए…जो मैदान-ए-जंग में लड़ रहे होंगे- उनके दिमाग में क्या चल रहा होगा? साल 1971 की जंग में शामिल जो फौजी अभी इस दुनिया में हैं… उनकी उम्र कम से कम 70 पार होगी..वो अपने मेडल को देखकर कितना गर्व महसूस कर रहे होंगे। लेकिन, युद्ध के बाद क्या हुआ? पिछले एपिसोड में मैं आपको बता चुकी हूं कि ढाका में भारतीय फौज ने पाकिस्तानी आर्मी को किस तरह से सरेंडर के लिए मजबूर किया…किस तरह संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के हर दांव-पेंच और तिकड़म को तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कूटनीतिक तैयारियों की वजह से नाकाम किया गया? क्या आपने कभी सोचा है कि 1971 में दुनिया के मंचों पर भारत कहां खड़ा था… उसे कितनी तवज्जो मिलती थी? पंडित नेहरू के दौर की आदर्शवादी कूटनीति में बदलाव करते हुए इंदिरा गांधी ने किस तरह व्यावहारिकता के धरातल पर खड़ा करना शुरू किया? साल 1971 की जंग ने किस तरह दुनिया को भारत के एक नए अवतार से परिचय कराया…जिसमें विजेता भारत बुरी तरह हारे हुए पाकिस्तान के साथ शिमला समझौते की मेज पर बैठता है…तो बुरी तरह पराजित दुश्मन देश के 93 हजार युद्धबंदियों को वापस लौटाने के लिए भी तैयार हो जाता है…अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की कूटनीति से दुनिया का ये अद्भुत साक्षात्कार था। उसके बाद दिल्ली डिप्लोमेसी किस तरह उतार-चढ़ाव के बीच आगे बढ़ी…इंदिरा गांधी से नरेंद्र मोदी तक आते-आते इसमें कितना बदलाव हुआ…इसे समझने की कोशिश करेंगे– अपने खास कार्यक्रम भारत में कूटनीति का ‘विजय अध्याय’ में।

कूटनीति का ‘विजय अध्याय’

अब जरा कैलेंडर को पलटते हुए साल 1971 पर लेकर चलते हैं । 16 दिसंबर, 1971 को ढाका में पाकिस्तानी आर्मी के सरेंडर की तस्वीरों ने पूरी दुनिया को हिला दिया…खासतौर से अमेरिका को। एक तरह से कहें तो तब के अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की नाक कट चुकी थी… उनकी गोद में बैठा पाकिस्तान…अमेरिकी हथियारों से युद्ध के मैदान में उतरा पाकिस्तान…सिर्फ 13 दिन में ही टूट गया। भारतीय फौज के अदम्य शौर्य के आगे पाकिस्तानी आर्मी की एक नहीं चली…इंदिरा गांधी की कूटनीतिक तैयारियों की वजह से संयुक्त राष्ट्र के जरिए पाकिस्तान को टूटने से बचाने का हर अमेरिकी पैतरा नाकाम रहा। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही खुद को मानवाधिकार का चैंपियन बताने वाले अमेरिका का दोहरा चेहरा दुनिया देख चुकी थी… इस्लामाबाद में भी तख़्त-ओ -ताज डोल रहा था। लोकतंत्र के खिलाफ एक तानाशाह की सोच ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये थे। जनरल याह्या खान ने 20 दिसंबर 1971 को जुल्फिकार अली भुट्टो को पाकिस्तान का राष्ट्रपति और सिविलियन मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त कर दिया… उनके मुल्क के 93 हजार फौजी भारत में युद्ध बंदी थे। ऐसे में भुट्टो के सामने करो या मरो वाली स्थिति थी।

1971 में हुई थी भारत की डबल जीत

ढाका में भारतीय फौज के सामने पाकिस्तानी फौज के सरेंडर की इन तस्वीरों को पूरी दुनिया ने देखा है। इन तस्वीरों में एक ओर भारतीय सेना के शौर्य की विजय गाथा है… वहीं, दूसरी ओर दिल्ली डिप्लोमेसी की कामयाबी की एक बुलंद कहानी भी। भारतीय कूटनीतिज्ञों ने दुनिया को एहसास दिला दिया कि अमेरिका जैसी महाशक्ति के दांव-पेंच को भी संयुक्त राष्ट्र में नाकाम किया जा सकता है…जहां उसका वर्चस्व हुआ करता था। मतलब, 1971 में भारत की डबल जीत हुई- एक मैदान ए जंग में और दूसरा कूटनीति की रणभूमि में। सरेंडर के तुरंत बाद ही इंदिरा गांधी ने भी बिल्कुल साफ कर दिया था कि युद्धबंदियों के साथ जेनेवा समझौते के हिसाब से ही बर्ताव होगा। पाकिस्तान के राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठने के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी – 93 हज़ार युद्धबंदियों को छुड़ाना। पश्चिमी मोर्चे पर पाकिस्तान के कई हिस्सों पर भारतीय फौज ने कब्जा कर लिया था। मजबूरन भुट्टो ने भारत के सामने शांतिवार्ता का प्रस्ताव रखा…बातचीत के लिए जगह चुनी गई – शिमला । भुट्टो अपनी बेटी बेनजीर के साथ शिमला पहुंचे…28 जून से लेकर 2 जुलाई के बीच भुट्टो और इंदिरा गांधी के बीच कई राउंड की बातचीत हुई । भुट्टो किसी भी कीमत पर खाली हाथ वापस नहीं लौटना चाहते थे…उन्होंने इंदिरा गांधी से गुजारिशकी कि भारत युद्ध में बंदी बनाए गए पाकिस्तानी सैनिकों को छोड़ दे… बदले में इंदिरा ने शर्त रख दी कि पाकिस्तान लाइन ऑफ कंट्रोल को ही अंतरर्राष्ट्रीय सीमा मान ले…भुट्टो इंदिरा को भरोसा देकर चले गए।

शिमला समझौते के बाद भारत का नया अवतार दिखा

दुनिया के सामने 2 जुलाई, 1972 को जो शिमला समझौता सामने आया- उसके मुताबिक,
* भारत और पाकिस्तान सभी विवादों का शांतिपूर्ण समाधान करेंगे
* कश्मीर समेत सभी विवादों का समाधान आपसी बातचीत से होगा
* आपसी विवाद को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर नहीं उठाया जाएगा

शिमला समझौते के बाद भारत ने पाकिस्तान के 93 हजार युद्धबंदियों को रिहा कर दिया और जंग में जीती गई पाकिस्तान की एक-एक इंच जमीन वापस कर दी। युद्ध में जीत के बाद भी भारत कूटनीति की टेबल पर कितना विनम्र हो सकता है…दुश्मन देश के युद्धबंदियों को किस तरह छोड़ सकता है… जंग में जीती गई जमीन से भी अपनी फौज वापस बुला लेता है – भारत के इस अवतार को भी दुनिया ने देखा और महसूस किया। इंदिरा गांधी की विदेश नीति में आदर्शवाद और व्यवहारिकता दोनों का पहिया साथ-साथ आगे बढ़ रहा था । वो सरहद की सुरक्षा के साथ मजबूत भारत के एजेंडे को आगे बढ़ाने यकीन करती थीं। इंदिरा गांधी अच्छी तरह समझ रही थीं कि दुनिया कौन सी भाषा अच्छी तरह समझती है… ऐसे में मई 1974 में भारत ने पहला परमाणु परीक्षण कर पूरी दुनिया के हैरान कर दिया…जिसे नाम दिया गया था- स्माइलिंग बुद्धा।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्यों के बाद परमाणु परीक्षण करने वाला भारत पहला देश बना…भारत के दम-खम दुनिया के नक्शे पर महसूस किया जाने लगा । स्वतंत्र विदेश नीति के रास्ते बढ़ते हुए भारत की भूमिका अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर तेजी से बढ़ रही थी। साल 1983 में इंदिरा गांधी तीन वर्षों के लिए गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अध्यक्ष चुनी गईं… दिल्ली में गुटनिरपेक्ष देशों का शिखर सम्मेलन हुआ…जिसमें दुनियाभर के 60 देशों को राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्षों ने हिस्सा लिया था। इंदिरा गांधी जो राह चुनी…उसमें उन्हें दुनिया की पहली कतार की नेताओं में गिना जाने लगा। भारत ने अपना बड़ा दिल दिखाते हुए…पाकिस्तान के 93 हजार युद्ध बंदियों को छोड़ दिया। भारतीय फौज उन इलाकों से भी पीछे हट गयी…जिस पर हमारे सैनिकों ने कब्जा किया था।

राजीव गांधी ने भी की पड़ोसियों से रिश्ते बेहतर बनाने की कोशिश

शिमला समझौते के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों कश्मीर मुद्दे को द्विपक्षीय बातचीत के जरिए सुलझाने पर सहमत हुए…मतलब, कश्मीर मुद्दा संयुक्त राष्ट्र से निकलकर भारत और पाकिस्तान के बीच आ गया। पूरी दुनिया में Delhi Diplomacy के नए तेवर…नए कलेवर की चर्चा होने लगी… इसमें Indian idealism के साथ Strategic Pragmatism का इंजन तेजी से काम करने लगा। इंदिरा गांधी के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे राजीव गांधी…उन्होंने पड़ोसियों के साथ रिश्तों को बेहतर बनाए रखने की पूरी कोशिश की… उनके दौर में विदेशी दौरे और विदेशी मेहमानों का आना-जाना बढ़ा। भारत और अमेरिका के रिश्तों में भी कड़वाहट कम करने की बड़ी कोशिश हुई…लेकिन, 1990 के दशक तक विदेश नीति के मायने बहुत हद तक बदल चुके थे। शक्ति संतुलन की परिभाषा भी तेजी से बदल रही थी। दुनिया के नक्शे पर रिश्तों का आधार सैन्य गठबंधन की जगह आर्थिक जरूरतें बनने लगीं। ऐसे में Delhi Diplomacy में नए रिश्तों का आधार Economic Pragmatism बनने लगा। लेकिन, सामरिक रूप से भारत का दम दुनिया ने अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में तब महसूस किया..जब उनकी सरकार में भारत परमाणु शक्ति बना।

अटल बिहारी वाजपेयी ने गजब का कूटनीतिक रवैया दिखाया

पोखरण में परमाणु परीक्षण से अटल बिहारी वाजपेयी ने धमाकेदार एंट्री ली…और पूरी दुनिया को भारत की ताकत का एहसास करा दिया । ये भी बता दिया कि आज का भारत अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के आर्थिक प्रतिबंधों से डरने वाला नहीं है। वाजपेयी अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को विस्तार देने में यकीन करते थे…वाजपेयी के दौर में लुक-ईस्ट नीति की नींव रखी गयी…चीन के रिश्ते सुधारने के साथ-साथ आसियान देशों से भी मेल-जोल बढ़ाया गया। ये वाजपेयी की कूटनीतिक समझ का ही कमाल था कि अमेरिका और इजरायल जैसे नए सहयोगी जुटे…तो रूस के साथ रणनीतिक साझेदारी का नया अध्याय शुरू हुआ। ये अटल बिहारी वाजपेयी की पड़ोसियों के साथ रिश्ता बेहतर करनेवाली सोच ही थी-जिसमें वो बस से बाघा बॉर्डर के रास्ते लाहौर तक जाते हैं… वहीं कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठिए आते हैं तो उन्हें खदेड़ने का काम भी होता है। वाजपेयी ये भी अच्छी तरह जानते थे कि आतंकवादियों को पालने-पोसने वाले पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों का इलाज कैसे किया जाता है ? इसलिए उनके दौर में कूटनीति की टेबल भी सजी और सरहद पर मोर्चेबंदी भी साथ-साथ आगे बढ़ी। ये वाजपेयी का कूटनीतिक दम-खम ही थी कि कारगिल की लड़ाई के दो साल के भीतर ही जनरल मुशर्रफ बातचीत के लिए आगरा दौड़े आए…हालांकि, वार्ता नाकाम रही। लेकिन, कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता और तीसरा पक्ष जैसे राग वाजपेयी हमेशा खारिज करते रहे…और पाकिस्तान की एक नहीं चलने दी। विश्व शांति के लिए वाजपेयी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की मजबूती में पूरा भरोसा करते थे…जिससे विश्वबंधुत्व की भावना को बढ़ाया जा सके । दुनिया की समस्याओं को सुलझाने में दमदार भूमिका निभाई जा सके। वाजपेयी जी की विदेश नीति में गहरी दिलचस्पी थी। उनका World View बहुत विस्तृत था । पोखरण में परमाणु विस्फोट से लेकर परमाणु हथियारों के पहले प्रयोग ना करने के एकतरफा ऐलान तक… वाजपेयी अगर दोस्ती बढ़ाने के लिए बस से लाहौर जाने का फैसला लेने में हिचक नहीं दिखाते…तो कारगिल में घुस आए पाकिस्तानी घुसपैठियों को कुचलने में भी देर नहीं लगाते हैं । मतलब, वाजपेयी ने कूटनीति में एक ऐसी राह चुनी…जिसमें संयम और सहयोग की भावना भी कूट-कूटकर भरी हुई थी… युद्ध की स्थिति में दुश्मनों के संहार से भी परहेज नहीं था।

मनमोहन सिंह ने भी पड़ोसियों से बेहतर रिश्ते बनाए

वाजपेयी जी के बाद देश की कमान अर्थशास्त्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के हाथों में आईं…जो बोलते कम थे.. लेकिन, सोच बहुत दूर की रखते थे। उन्हें अक्सर महसूस होता था कि भारत भले ही एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र है…लेकिन, परमाणु से जुड़े कई मसलो में अंतरराष्ट्रीय समुदाय भारत को अछूत जैसा मानता है । इसकी एक बड़ी वजह भेदभाव वाली Nuclear proliferation treaty भी है। ऐसे में उन्होंने अमेरिका के साथ Civil Nuclear Cooperation को एक बड़े मौके की तरह देखा। तब के अमेरिकी राष्ट्रपति जॉज डब्ल्यू बुश और भारत के प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने वॉशिंगटन में परमाणु करार का ऐलान किया..इस ऐलान के करीब सात महीने बाद जॉर्ज बुश भारत दौरे पर आए…इस दौरान सैनिक – असैनिक परमाणु रिएक्टरों को अलग करने पर सहमति बनी। दरअसल, भारत 1998 में ही परमाणु परीक्षण कर चुका था…पर NPT और CTBT पर दस्तखत नहीं किए थे । ऐसे में अमेरिका के साथ सिविल न्यूक्लियर डील के साथ भारत के अंतरराष्ट्रीय परमाणु मुख्यधारा में शामिल होने की राह खुल गयी.. साथ ही वाशिंगटन और दिल्ली के बीच रिश्ते और मजबूत होने लगे। पड़ोसी पाकिस्तान से रिश्ते बेहतर करने के लिए मनमोहन सिंह ने बड़ा दिल दिखाया और शर्म-अल-शेख में जारी साझा बयान में द्विपक्षीय बातचीत को आतंकवाद से अलग किया… वो उदार मन से सोच रहे थे कि भारत की तरह ही पाकिस्तान भी आतंकवाद से लड़ रहा है । लेकिन 26 नवंबर 2008 को जब आतंकियों ने मुंबई पर हमला किया…तो उन्होंने भी पाकिस्तान के खिलाफ कड़ा रूख अपनाया। अफ्रीकी देशों से सहयोग बढ़ाने के लिए साल 2008 में दिल्ली में इंडिया-अफ्रीका समिट हुआ, जिसमें 14 अफ्रीकन नेताओं ने हिस्सा लिया। मनमोहन सिंह के दौर में पूरब के पड़ोसियों से रिश्ते बेहतर करने के लिए बड़ी पहल हुई..चीन के साथ रिश्तों की रिपेयरिंग का काम तेज हुआ..दोनों तरफ से जमकर आना-जाना हुआ…भारत-चीन के बीच कारोबार तूफानी रफ्तार से होने लगा । मनमोहन सिंह की दोनों पारियों में कूटनीति में टॉप पर आर्थिक प्राथमिकताएं ही दिखीं। डॉक्टर मनमोहन सिंह भी अच्छी तरह समझ रहे थे पश्चिम और पूरब दोनों तरफ से खतरा बराबर है…वो ये अच्छी तरह जानते थे कि ना पाकिस्तान सुधरने वाला है…न चीन अपनी हरकतों से बाज आने वाला है । ऐसे में दिल्ली डिप्लोमेसी उतार-चढ़ाव के बीच बहुत संतुलन बनाते हुए आगे बढ़ रही थी। डॉक्टर मनमोहन सिंह का सबसे ज्यादा जोर उन रिश्तों पर जमी बर्फ हटाने में रहा… जो भारत को आर्थिक प्रगति की राह पर ले जाए।

मोदी का कूटनीतिक स्टाइल सबसे अलग नजर आया

साल 2014 में भारत के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे नरेंद्र दामोदर दास मोदी। मोदी ने अपनी पहली पारी में विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी सुषमा स्वराज को सौंपी…साल 2014 से पहले भारत के प्रधानमंत्रियों के विदेशी दौरों की ज्यादा चर्चा नहीं होती थी…लेकिन, पीएम मोदी ने ऐसी रणनीति बनाई कि उनके हर विदेश दौरे की जमकर चर्चा होती। इसके मायने निकाले जाते। विदेशी जमीन से भी मोदी भारतीय समुदाय को संबोधित करने लगे… हालात इतनी तेजी से बदले कि जो अमेरिका कभी मोदी की एंट्री पर प्रतिबंध लगाता था…उसी अमेरिका के राष्ट्रपति व्हाइट हाउस में नरेंद्र मोदी का दोनों हाथ खोलकर स्वागत करने लगे। नरेंद्र मोदी की कूटनीति में संवाद भी है और दुश्मन को उसकी भाषा में जवाब देने वाली राजनीतिक इच्छाशक्ति भी। पीएम मोदी के दौर में अगर इंडियन आर्मी उरी में सेना कैंप पर आतंकी हमले के जवाब में LOC पार कर आतंकी अड्डों पर सर्जिकल स्ट्राइक करती है तो पुलवामा के जवाब में बालाकोट में एयर स्ट्राइक होता है…जी-20 के दिल्ली डिक्लेरेशन में महाशक्तियां अपने विरोधाभासों को किनारे कर भारत के सुर में सुर मिलाती दिखती हैं ।

नरेंद्र मोदी की कूटनीति का स्टाइल बिल्कुल अलग है। दुनिया के बड़े नेताओं के साथ उनकी बेहतर कमेस्ट्री की तस्वीरें समय-समय पर आती रहती हैं । मोदी जिस देश में जाते हैं – वहां रहने वाले भारतीय मूल के लोगों से मिलना नहीं भूलते। पड़ोसी देशों से बेहतर रिश्ते बनाने की शुरूआत उन्होंने साल 2014 में बतौर प्रधानमंत्री अपने शपथ-ग्रहण समारोह से ही कर दी थी। उन्होंने सार्क देशों को अपने शपथ-ग्रहण समारोह में न्यौता दिया था। पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की बड़ी पहल की..अफगानिस्तान से लौटते समय पाकिस्तान में लैंड कर मोदी ने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया । लेकिन, जब पाकिस्तान से आए आतंकियों ने जम्मू-कश्मीर के उरी में आर्मी कैंप पर हमला किया…तो मोदी सरकार ने PoK में घुसकर आतंकियों के सफाए का फैसला किया। पुलवामा में CRPF काफिले पर आत्मघाती हमले के बाद मोदी सरकार ने पीओके में घुसकर आतंकियों के अड्डे पर एयरस्ट्राइक किया। ये मोदी के दौर में भारत की कूटनीति का स्टाइल है। चीन जैसे खुराफाती पड़ोसियों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री मोदी जहां एक ओर राष्ट्रपति जिंगपिंग से समझौते की टेबल पर बैठते हैं…दूसरी ओर चाइनीज आर्मी के डोकलाम से गलवान घाटी तक मंसूबों को भी भारतीय सेना नाकाम करती है। मोदी खुराफाती पड़ोसियों को भी सीधा संदेश देते रहते हैं।

मोदी ने अरब देशों से कनेक्शन मजबूत किया

नरेंद्र मोदी के दौर में भारत और अमेरिका के बीच कूटनीतिक संबंधों को नई ऊंचाई मिली..तो अरब देशों के साथ भी दिल्ली कनेक्शन मजबूत हुआ है। कोरोना काल में भारत ने दुनिया के कई देशों को वैक्सीन सप्लाई किया…आकार और आबादी में छोटे कई देशों को एहसास हो गया कि भारत दुनिया की बड़ी समस्याओं को सुलझाने में नि:स्वार्थ भाव से आगे आता है। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान जिस तरह से गोलबंदी हुई और दुनिया दो ध्रुवों में बंट गयी । वहां की भारत अपनी विदेश नीति के मूल तत्वों के साथ डटा रहा। अमेरिका या रूस के प्रभाव से बिल्कुल मुक्त होकर फैसला लिया और राष्ट्रीय हितों को देखते हुए रिश्तों को परिभाषित किया। बतौर जी-20 अध्यक्ष भारत ने वो कर दिखाया…जिसे लेकर बड़े-बड़े कूटनीतिज्ञ आशंका जता रहे थे। पीएम मोदी G-20 देशों के शिखर सम्मेलन के पहले दिन ही घोषणापत्र पर सदस्य देशों के बीच सहमति बनाने में कामयाब रहे… दिल्ली घोषणा पत्र के जरिए संदेश देने की कोशिश की गई है कि आज का युग युद्ध का नहीं है। इसमें यह भी कहा गया है कि आतंकवाद को किसी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। जी-20 के दिल्ली शिखर सम्मेलन में अफ्रीकी यूनियन की 21वें सदस्य के रूप में एंट्री हुई…ऐसे में बदली विश्व व्यवस्था में भारत को ग्लोबल साउथ की एक मजबूत आवाज के रूप में भी देखा जा रहा है। मोदी के दौर में दिल्ली Diplomacy सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास के सूत्र पर आधारित है। वहीं दुनिया के पेचीदा मसलों के सुलझाने के लिए इसमें सबका प्रयास को भी जोड़ा गया है।

मोदी ने भारतीय विदेश नीति को दी नई पहचान

नरेंद्र मोदी ने भारत की विदेश नीति को नए सिरे से परिभाषित किया…एक नई पहचान दी। दुनिया के जिस देश में नरेंद्र मोदी जाते हैं – वहां रहने वाले भारतीय मूल के लोगों से संवाद करना नहीं भूलते। लेकिन, आजादी के पंडित नेहरू ने भारतीय विदेश नीति में आदर्शवाद का जो मूल सूत्र रखा…वो तब की परिस्थितियों के मुताबिक देश की जरूरत थी। लेकिन, 1962 और 1965 के युद्ध के बाद इंदिरा गांधी के दिमाग में एक बात शीशे की तरह साफ रही होगी कि बिना सैन्य शक्ति और सरहदों के मजबूत सुरक्षा तंत्र के आदर्शवादी कूटनीति लंबे समय तक नहीं ठहर सकती । इसीलिए, 1971 को भारतीय कूटनीति में एक निर्णायक मिल के पत्थर की तरह देखा जा सकता है…जहां से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दिल्ली की बात को गंभीरता से सुना जाने लगा…राजीव गांधी ने अमेरिका और चीन के साथ भारत के रिश्तों की रिपेयरिंग की बड़ी कोशिश की..तो अटल बिहारी वाजपेयी ने दिखा दिया कि भारत महाशक्तियों के प्रभाव और दबाव से मुक्त होकर फैसला लेता है। मनमोहन सिंह की कूटनीति में ड्राइविंग सीट पर Economic Pragmatism रहा…तो नरेंद्र मोदी कूटनीतिक रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर रहे हैं–जिसमें इंडिया फर्स्ट के साथ वसुधैव कुटुम्बकम् का मेल हो। मतलब, भारत की विदेश नीति हमेशा से ही गतिमान है..परिवर्तनशील है। दुनिया की गंभीर समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रोएक्टिव मोड में है।

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